Wednesday, March 4, 2009

मेरे पंख पकड़कर....

by Rama Solanki

मेरे पंख पकड़कर.... वो अक्सर मुझसे बोलते है किं उड़ों!

इतना उड़ों, की आकाश का शामियाना छोटा पड़ जाये...

उसमे कतरन जोड़-जोड़कर तुम्हारे पंखों की औकात नापी जाये

... नापते नापते मेरी उड़ान नप गई पर मेरा हौसला आज भी कहता है आकाश को...
किं तू कतरन जोड़ते जोड़ते थक गया पागल... पर मेरी उड़ान अब भी हौसलों से है..
सांस भरती है, पंखों के ताने थक भी जाते है..

मगर सिकुड़ते फैलते इन पंखों मे कमबख्त हवा यूं ही भरती रहती है, अब न प्यास लगती है,
न वो दाना दिखता है.. न मेरा वो कुनवां,

जो अक्सर शाम होते ही निकल जाता था पूरव की ओर...
मुझे वो छौर दिखता है, मुझे ये भौर दिखती है...

मुझे मुझको चिढ़ाता ये सूरज दिखता है, जो गुस्से मे लाल होकर, मेरे हौसलों से डर जाता है....
और दिखते है ये दो हाथ...

जिन्होंने अभी तक मेरे पंख नही छोड़े...
मगर अक्सर वो मुझसे बोलते है किं उड़ो......

इतना उड़ों, मेरे हाथ थक जाये
, मगर तुम्हारे हौसले उड़ते रहे....
उड़ते रहे, उड़ते रहे...... ..............

रमा सोलंकी.........

Aaj Tak reporter Rama Solanki is an exciting poet based based in Jaipur....

2 comments:

Anonymous said...

Its really a very good poetry.....
keep it up..

Manzilen unhi ko milti hai, jinke sapno me jaan hoti hai.
pankhon se kuchh nahi hota, hoslon se udaan hoti hai!!

-Dj.

oteech said...

You came with the flying visit on 15the Feb-2010...........You did fly.....you did !!

Good Poetry ! Similar srory !!